रायमाता का इतिहास व प्राकट्य कथा

 


रायमाता की प्राकट्य कथा 
श्रुति के अनुसार 380 वर्ष पूर्व ग्राम के दक्षिण की ओर ऊॅचे टीले पर सेवापुरी नामक तपस्वी सन्त रहते थे। जिन्हो ने जिवित समाधी लीथी। अचानक पृथ्वी वही एक निश्चित स्थान पर कम्पित होने लगी और कुछ ही गहराइ से व.सं.1600 मे दुर्गामता की मूर्ति प्रकट हुई। उसी समय आवाज आयी कि मै रायमता हूॅ,तुम मेरी पूजा करो। बस क्या था यह खबर आग कि तरह गांव मे ही नही अपितु आस पास के गांवो तक फैल गई। देवी के दर्शन करने के लिए हजारो ग्रामीण वहां पहुॅच गये। बाबा सेवापुरी जी के साथ सभी पे पूजा अर्चना कर वही देवी के मंदिर की स्थापना कर दी। तत्कालीन शासक देवदत भी वहां पहुॅच गये। तत्पश्चात उसी मंदिर को भव्य रूप देने मे ग्राम के कानोडिया परिवार का योगदन शुरू होगया। लोक श्रद्धा के अनुसार यही रायमता लोकप्रिय और कलियुग की चमत्कारी देवी के रूप मे प्रसिद्ध होगइ्र।गांव के तत्कालीन शासक देवदत्तजी को देवी प्रतिमा के प्रकट होने की सूचना मिली तो उन्होंने यहाँ मन्दिर बनवा दिया बाद में गांव के ही कानोडिया परिवार ने मन्दिर को विस्तार दिया।

माता जी के मेले मे विशेष आक्रषर्ण का केन्द्र दूर दराज से आये हुए पहलवानो की कुश्ती  एवं कब्बडी है। यह प्रतियोगिता दो से तीन दिनो तक चलती है। प्रथम,द्वितीय व तृतीय विजेताओ को नकद देकर सम्मनानित किया जाता है। इस अवसर पर तीन दिवस तक भव्य मेला आयोजित होता है। इस लखी मेले मे दूर दराज तक के ग्रामीण लोग मेले मे सम्मलित होते है। इस मे पुलिस की कडी निग्रानी रहती है। यात्रीयो के ठहर ने के लिए धर्मशाला की सुविधा प्रदान है। इस ग्राम कि यह विशेषता है कि इस मेले मे हिन्दु और मुस्लिम सभी के परिवारो मे माता की मान्यता है। माता की सेवा मे रहे संत सर्वप्रथम शिवपुरी जी महाराज,श्रवणपुरीजी,भेला गिरीजी,खूबगिरीजी,बुद्वगिरीजी प्रथम एवं बुद्वगिरीजी द्वितीय,शांतिगिरीजी,विजयगिरीजी,वर्तमान मे बाबा दशम गिरी जी पीठ के सन्त है। इस मंदिर के के अधिनस्थ 162 बीघा 18 बिस्वा जमीन ठाकुर देवदत ने पटटा सहित भेंट की थी जो रायमाता बणी के नाम से जानी जाती है।

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